होली के रंग

होली के रंगों को लेकर ऋतुराज वसंत आ गया
विकृत जीवन के पतझर में नवजीवन के गीत गा गया
वासंती पवनो की धारा बहते बहते रह जाती है,
जीवन है अनबूझ पहेली, मर्म हमें वो कह जाती है।


होली की हुडदंग आ गई, केवल तन पर रंग न डालो
उचल कूद कर पुलकित मन से मॉल मॉल मन का मेल निकालो,
रंगों की है धर बह रही, दिल को धोते वो रह जाती है,
जीवन है अनबूझ पहेली मर्म हमें वो कह जाती है ।


अन्य धर में बहते रहते, पुण्य धार की सोच नही है,
पापी मन को ही समझाते कहते मन में खोच नही है।
गिरते मूल्यों की ये धारा बहते बहते रह जाती है,
जीवन है अनबूझ पहेली मर्म हमें वो कह जाती है।


bhavo के इस वृन्दावन में phoot pada ये कालापन
सच्चे रिश्तो के भी मन में आन पड़ा अब ओछापन ,
गिरते गिरते कहाँ गिरेंगे जगह हमें दिखला जाती है ,
जीवन है अनबूझ पहेली मर्म हमें वो कह जाती है।
baasanti पवनो की धारा बहते बहते रह जाती है।







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मेरी नई कविता !

निर्माण का पहिया
परमार्थ की नित खोज में प्रभु फिर रहे धरती गगन,
पोटरी पापों की थाम,हम लड़ रहे हो कर मगन
मानव ,मानव की लाश पर बैठा बहा प्रवाह में
ग़मगीन होना मत, है छुपा पाखंड इनकी हर आह में!


निर्जन भूमि को जीतने में दुर्जनों की बस भलाई है
मानवता की लाश उठाने, मृत्तिका फिर आई है,
बची मनुष्यता है अगर ,गर दिल अभी भी धड़क रहा
टूटती साँसों के साथ नर ब्रह्म गर कुछ कह रहा !

आत्मा की छूटती साँसे अगर,देती तुम्हे सुनाई है!
समझो मानव अभी मरा नहीं, बेहोशी बस छाई है !
थाम लो अपने हाथो को समय अभी चूका नहीं !
निर्माण का, परमार्थ का पहिया अभी रुका नहीं !



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